डॉ. राजेन्द्र डोभाल, वैज्ञानिक
देवभूमि उत्तराखण्ड में काफल बस पकने ही वाला है बल्कि कुछ स्थानों में बदलते हुये मौसम के कारण पहले ही पक जाता है जो कि अपने नैसर्गिक खूबसूरती एवं स्वाद की वजह से पर्यटकों व स्थानीय लोंगो को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता है। उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध लोकगीत काफल-पाकौ चैत तथा काफल पाकौ मिन नि चाखौ मार्मिक हृदय को छू लेने वाले गीत में भी इस बहुमूल्य फल का जिक्र मिलता है। उत्तराखण्ड के पहाड़ी सड़कों के किनारे कई स्थानों पर स्कूली बच्चे व स्थानीय लोग इस बहुमूल्य फल को बेचते नजर आ जायेंगे जिसको पर्यटक, स्थानीय लोग, चारावाह व बच्चे बड़े चाव से खाते हैं। एक समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख के अनुसार हिमाचल प्रदेश के केवल मंडी जिले में ही लगभग एक मौसम में 15 से 20 टन काफल जो कि लगभग 25 से 30 लाख रूपये का आर्थिक उपार्जन करता है। देहरादून के फुटकर बाजार में तो यह 200 रूपये किलो तक मिलता है।
काफल उत्तराखण्ड में मध्य हिमालयी क्षेत्र अन्तर्गत 1000 से 2000 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। यद्यपि इसका फल मौसमी तथा संतरे की तरह रसीला नहीं होता, फिर भी काफल देखते ही मुंह में पानी आ जाता है तथा पहाड़ी क्षेत्रों में सेंधा नमक मिलाकर काफल खाने का मजा ही कुछ और है। मेरी दृष्टि में काफल शायद बसंत की विदाई का आखिरी फल है जो तप्ती गर्मी के आने से ठीक पहले अपने स्वाद से लोगों का मन मोह लेता है। विश्वभर में काफल की लगभग 50 प्रजातियां पायी जाती हैं तथा यह सामाजिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फल है। यहां myricaceae परिवार से सम्बन्ध रखता है तथा सदाबहार पेड़ है। यह विश्वभरमें मध्य हिमालय, खाशिया पर्वत, सिंगापुर का दक्षिणावृत्त क्षेत्र, मलायन द्वीप, चीन, जापान तथा नेपाल में भी पाया जाता है। यह काठफल के नाम से भी जाना जाता है। सामान्यतः एक परिपक्व वृक्ष से 15 से 30 किलोग्राम तक फल प्राप्त किया जा सकता है।
पारम्परिक रूप से काफल कई बीमारियों के निवारण के लिये वैद्यों द्वारा प्रयोग किया जाता रहा है जैसे एनीमिया, अस्थमा, ब्रोकाइटिस, जुखाम, अतिसार, बुखार, मूत्राशय रोग एवं यकृत सम्बन्धी बीमारियों के लिये प्रयुक्त होता रहा है। आयुर्वेद में काफल को औषधीय गुणों से भरपूर बताया गया है। काफल का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों जैसे पेड़ की छाल, फल तथा पत्तियां सभी में औषधीय गुण पाये जाते हैं। आयुर्वेद में काफल के फल को भूख बढ़ाने हेतु सबसे बेहतर माना जाता है तथा साथ-साथ मधुमेह रोग के लिये भी लाभदायक होता है। यह कई बीमारियों के निवारण के साथ-साथ एक बेहतर एण्टी आक्सिडेंट गुण भी रखता है जिसकी वजह से यह oxidative stresses के निवारण में सहायक होता है।
आयुर्वेद में काफल को डिटोक्सीफायर तथा दर्द निवारक का नाम भी दिया है। रोककर हृदय रोग में सहायक होता है। वर्तमान में भी आयुर्वेद में विभिन्न उत्पादों जैसे – कासहर चूर्ण, चयवनप्रास एवं ब्रामोरसायन के निर्माण में भी इसका प्रयोग होता है जिसकी विभिन्न औषधीय गुणों की वजह से यह औद्योगिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। जहां तक काफल की पौष्टिकता की बात की जाय तो इसमें प्रोटीन 1.3 प्रतिशत, फाइवर 3.40 प्रतिशत, वसा 0.02 प्रतिशत, जैविक पदार्थ 98.10 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 16.13 प्रतिशत, कैल्शियम 1.0 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम, मैग्नीशियम 8.4 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम, पोटेशियम 1.98 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते हैं। इसके फल में 75.4 प्रतिशत पल्प पाया जाता है जिसमें 40 प्रतिशत तक जूस पाया जाता है तथा 3.68 प्रतिशत अम्ल के साथ-साथ 12.65 प्रतिशत रिड्यूसिंग शुगर पाया जाता है।
यह औषधीय उद्योग के साथ-साथ न्यूट्रास्यूटिकल एवं प्राकृतिक खाद्य उद्योग में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके छाल के तेल का भी सौन्दर्य प्रसाधन निर्माण में भी उपयोग किया जाता है। इसका औद्योगिक महत्व इसी बात से आंका जाता है कि विश्व स्तर पर काफल से निर्मित उत्पाद स्टोनिया, श्रीलंका, न्यूजीलैण्ड, मलेशिया, पाकिस्तान तथा यू0के0 आदि में निर्यात किये जाते हैं। जहां तक काफल से आर्थिकी की बात की जाय तो 2004 के एक अध्ययन के अनुसार इसके फल के साथ-साथ जूस से भी एक दिन में 500 रूपये तक की आय प्राप्त की जा सकती है। मुख्य बात यह है कि इतने पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर होने के कारण इसको उत्तराखण्ड में औद्योगिक महत्व नहीं मिला है। जबकि हिमाचल प्रदेश में डा0 वाई0एस0 परमार विश्वविद्यालय द्वारा काफल का औद्योगिक उत्पादन हेतु इसके वेजिटेटिव प्रोडक्शन हेतु सफल परियोजना संचालित की है जिससे काफल को अन्य फलों की तरह बागान में औद्योगिक रूप से उगाया जा सके। यदि प्रदेश में भी इसकी औद्योगिक रूप से खेती की जाय तो निसंदेह यह स्थानीय लोंगो की आर्थिकी का बड़ा जरिया बन सकता है तथा विदेषों में भी काफल के महत्व को समझा जा सकेगा।