उत्तराखंड में आन्दोलनों का इतिहास बहुत पुराना है प्रदेश में स्वाधीनता आन्दोलन से ही अनेकों महान स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों का सर्वोच बलिदान दिया। देवभूमि में हुए सक्रिय आन्दोलनों में चिपको आन्दोलन ऐतिहासिक आन्दोलनों में से एक है। इस आन्दोलन को 5 दशक पूरे हो चुके हैं। जल जंगल जमीन के लिए पहाड़ों में शुरु हुए आन्दोलन ने एक ऐसी राह पकड़ी जो आज जन आन्दोलन के रुप में हमारे सामने है। इस आन्दोलन की मुख्य सूत्रधार गौरादेवी रही। पांच दशक पहले 26 मार्च 1974 को चमोली के रैणी गांव की एक साधारण महिला गौरादेवी के नेतृत्व में उनकी 27 सहयोगियों ने हरे भरे पेड़ों के आगे खड़े होकर चिपको आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन इसलिए भी खास है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से ग्रामीण महिलाओं ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भले ही चिपको आंदोलन अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। लेकिन चिपको से जुड़े लोग और उसकी कर्मभूमि पहचान की मोहताज है।
उत्तराखंड के सीमांत जिले चमोली के जोशीमठ ब्लॉक में रैणी गांव स्थित है दूरी पर भारत तिब्बत सीमा प्रारंभ होती है । तपोवन और मलारी के बीच में रैणी गांव स्थित है। 50 वर्ष पहले इस गांव की दो दर्जन महिलाएं स्वर्गीय गौरा देवी के साथ मिलकर पेड़ों को काटने से बचाने के लिए पेड़ों से लिपट गई और यहीं से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई। रैणी में 1974 की घटना अचानक नहीं थी। यह स्थानीय ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष की परिणति थी। स्व कॉमरेड गोविंद सिंह ,चंडी प्रसाद भट्ट , हयात सिंह, स्व वासवानंद नौटियाल, फतेसिंह रावत और उनके अन्य सहयोगी लंबे समय तक आंदोलनरत रहे।
रैणी के जंगलों का ठेका जब भला ठेकेदार को मिला और उसके कारिन्दों की इस क्षेत्र में बढती सक्रियता बढने लगी। तब लोग इसके विरोध में लामबंद हुए। उन्हें अपने जल जंगल और जमीन की चिंता सताने लगी थी। विरोध की तीव्रता धीरे-धीरे बढ़ती गई। विरोध इस स्तर पर पहुंचा कि 27 ग्रामीण महिलाओं को अपने जंगलों को बचाने के लिए पेड़ के आगे खडे होना पडा। बस यहीं से शुरू हुआ चिपको आंदोलन। इसके बाद इसी क्षेत्र में छीनों छपटो आंदोलन भी लंबे समय तक चला।
चिपको आंदोलन आज से पांच दशक पहले देश के सीमांत गांव रैणी में किया गया। जहां उस दौर में शिक्षा और आधुनिक संचार के साधन उपलब्ध नहीं थे। कम शिक्षित होने के बावजूद यहां की ग्रामीण महिलाओं ने अपनी दृढ इच्छाशक्ति के चलते पर्यावरण सरक्षण का जो संकल्प लिया। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहा। भले ही गौरा देवी और उनकी सहयोगियों को वह सम्मान नहीं मिल पाया हो। लेकिन चिपको आंदोलन पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने में कामयाब जरूर रहा।