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Reading: देवभूमि की अनूठी सांस्कृतिक धरोहर है “रम्माण”
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Devbhumi Discover > Person to Person > देवभूमि की अनूठी सांस्कृतिक धरोहर है “रम्माण”
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देवभूमि की अनूठी सांस्कृतिक धरोहर है “रम्माण”

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Last updated: March 9, 2025 6:12 am
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4 Min Read
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संजय चौहान

Contents
ये है रम्माणऐसा होता है आयोजन!यूनेस्को ने घोषित किया विश्व धरोहर

उत्‍तराखंड ने सदियों से लोकसंस्‍कृति, लोककालाओं, लोकगाथाओं को संजोकर रखा है। विश्‍व प्रसिद्ध नौटी की नंदाराजात हो या फिर देवीधुरा का बग्‍गवाल युद्ध, गुप्‍तकाशी के जाख देवता का जलते अंगारों पर हैरतंगैज नृत्‍य हो या फिर जौनसार का बिस्सू मेला। ये सभी देवभूमि की लोकसंस्‍कृति की झलक दिखलाती है। उत्‍तराखंड में रामायण, महाभारत की सैकड़ों विधाएं मौजूद हैं। ऐसी ही एक लोक संस्‍कृति है रम्‍माण। चमोली के पैनखण्‍डा से यूनेस्‍को के विश्‍व सांस्कृतिक धरोहर बनने में रम्‍माण ने लोकसंस्‍कृति की अनूठी छटा पेश की है। जिसने देवभूमि को हर बार गौरवान्वित होने का अवसर दिया है।

ये है रम्माण

माना जाता है कि रम्‍माण का इतिहास लगभग 500 वर्षों से भी पुराना है। जब यहां हिन्‍दू धर्म का प्रभाव समाप्ति पर था तो आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा हिन्‍दू धर्म के पुनर्जन्‍म हेतु पूरे देश में चार पीठों की स्‍थापना की गई, साथ ही ज्‍योर्तिमठ (जोशीमठ) के आस-पास के इलाकों में हिन्‍दू धर्म के प्रति लोगों को पुन: जागृत करने हेतु अपने शिष्‍यों को हिन्‍दू देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर रामायण, महाभारत के कुछ अंशों को मुखौटा नृत्‍य के माध्‍यम से गांव-गांव में भेजा गया ताकि लोक हिन्‍दू धर्म को पुन: अपना सकें। शंकराचार्य के शिष्‍यों द्वारा कई सालों तक मुखौटे पहनकर इन गांवों में नृत्‍यों का आयोजन किया जाता रहा, जो बाद में यहां के समाज का अभिन्‍न अंग बनकर रह गई और आज विश्‍व धरोहर बन चुकी है।

ऐसा होता है आयोजन!

पैनखण्‍डा (जोशीमठ) के सलडू-डूंग्रा गांव में रम्‍माण का आयोजन प्रतिवर्ष बैशाख माह में किया जाता है। एक पखवाड़े तक चलने वाली मुखौटा शैली व भल्‍दा परंपरा की यह लोकसंस्‍कृति आज शोध का विषय बन गई है। पांच सौ वर्ष से चली आ रही इस धार्मिक विरासत में राम, लक्ष्‍मण, सीता, हनुमान के पात्रों द्वारा नृत्‍य शैली में रामकथा की प्रस्‍तुति दी जाती है। जिसमें 18 मुखौटे 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, आठ भंकोरे प्रयोग में लाये जाते हैं। इसके अलावा राम जन्‍म, वनगमन, स्‍वर्ण मृग वध, सीता हरण, लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया जाता है। जिसमें कुरू जोगी, बण्‍यां-बण्‍यांण तथा माल के विशेष चरित्र होते हैं जो लोगों को खासे हंसाते हैं, साथ ही जंगली जीवों के आक्रमण का मनमोहक चित्रण म्‍योर-मुरैण नृत्‍य नाटिका भी होती है।

 

यूनेस्को ने घोषित किया विश्व धरोहर

रम्माण को विश्‍व धरोहर बनाने में डॉ। कुशल सिंह भण्‍डारी (सलूड-डूंग्रा), प्रो। डीआर पुरोहित, पूर्व निदेशक केंद्रीय गढ़वाल विश्‍वविद्यालय, अरविंद मुदगिल छायाकार सहित विभिन्न लोगों का ममहत्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्ष 2007 तक रम्‍माण सिर्फ पैनखण्‍डा तक ही सीमित था परंतु गांव के ही डॉ। कुशल सिंह भण्‍डारी के मेहनत का ही नतीजा था कि आज रम्‍माण को वो मुकाम हासिल है। कुशल सिंह भण्‍डारी ने रम्‍माण को लिपिबद्ध कर इसे अंग्रेजी में अनुवाद किया, तत्‍पश्‍चात इसे गढ़वाल विश्‍वविद्याल लोक कला निष्‍पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्‍ली स्थित इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय कला केंद्र तक पहुंचाया गया। इस संस्‍थान को रम्‍माण की विशेषता इतनी पसंद आई कि उक्‍त संस्‍थान की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोक इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्‍ली बुलाया गया, जिन्‍होंने दिल्ली में अपनी शानदार प्रस्‍तुतियां दी। तत्‍पश्‍चात इसे भारत सरकार द्वारा यूनेस्‍को भेजा गया, जिसके बाद 02 अक्‍टूबर 2009 को यूनेस्‍को द्वारा पैनखण्‍डा के रम्‍माण को विश्‍व सांस्‍कृतिक धरोहर घोषित किया गया तथा 11 व 12 दिसंबर 2009 को आईसीएस के दो सदस्‍सीय दल में शामिल जापान मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने प्रमाण-प्रत्र ग्रामवासियों को सौंपे तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना ना रहा।वहीं रम्माण नें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली राजपथ परेड में दुनिया को लोकसंस्कृति के दीदार कराये।

 

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